उपचुनाव : सबकी अपनी अलग डफली, अपना अलग राग
अब बिहार में कांग्रेस बिना आरजेडी के चलने का फैसला आज कर सकती है. आरजेडी में लगातार इस बात की मांग उठ रही थी कि कांग्रेस के पास बिहार में कोई वोट बैंक नहीं है, लिहाजा आरजेडी को कांग्रेस के साथ अपने रिश्ते तोड़ लेने चाहिए.
उपचुनावों का ऐलान हुआ तो आरजेडी ने भी दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम का ऐलान कर दिया. जिन दो सीटों पर उपचुनाव होने वाले हैं, उनमें से एक सीट कांग्रेस के कोटे की थी. पिछली बार बेहद मामूली अंतर से कुशेश्वर स्थान सीट पर कांग्रेस हार गई थी. इसके बावजूद कांग्रेस के दावे को खारिज करते हुए आरजेडी ने तारापुर और कुशेश्वर स्थान दोनों ही सीटों पर उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया.
कुशेश्वर स्थान से कांग्रेस के उम्मीदवार रहे डॉ अशोक कुमार राम राज्य कांग्रेस के कद्दावर नेता माने जाते हैं. दलित बिरादरी से आने वाले डॉ अशोक कुमार राम कई बार लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. कई बार विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं और बिहार सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. डॉ अशोक कुमार फिलहाल बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी के कार्यकारी हैं.
ऐसे में कांग्रेस भला अपने एक कद्दावर नेता का अपमान कैसे बर्दाश्त कर सकती है. अब माना जा रहा है कि दोनों सीटों पर अकेले चुनाव लड़कर कांग्रेस आरजेडी को अपनी हैसियत और अहमियत का एहसास कराएगी. कुशेश्वर स्थान सीट से डॉ अशोक कुमार राम के बेटे डॉ कुमार अतिरेक का चुनाव लड़ना अब तय माना जा रहा है.
कुमार अतिरेक पूर्व में बिहार प्रदेश युवा कांग्रेस का भी चुनाव लड़ चुके हैं और युवा कांग्रेस के प्रदेश महासचिव भी रह चुके हैं. कुशेश्वर स्थान सीट पर रविदास समाज का अच्छा खास वोट है और इन वोटों पर डॉ अशोक कुमार राम की पकड़ भी मानी जाती है. ऐसे में मामला दिलचस्प होने और चुनाव के त्रिकोणिय होने के पूरे आसार माने जा रहे हैं. जाहिर तौर पर खेल मजेदार होने जा रहे हैं.
अब कांग्रेस भी एक्शन में है. जेल से बाइज्जत बरी होकर बाहर निकले पूर्व सांसद पप्पू यादव को कांग्रेस ने तारापुर सीट लड़ने का ऑफर कर दिया है. हालांकि पप्पू यादव की फिलहाल खुद की पार्टी है जन अधिकार पार्टी और वह इसके सुप्रीमो भी हैं. ऐसे में अपना दल छोड़कर पप्पू यादव कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे या नहीं, अभी तक इसकी आधिकारिक जानकारी नहीं मिल पाई है.
अगर पूर्व सांसद पप्पू यादव तारापुर से उपचुनाव लड़ते हैं तो आरजेडी की परेशानी बढ़ सकती है. आरजेडी को पूर्ण विश्वास है कि कोई भी नेता आ जाए लेकिन यादवों का वोट एकमुश्त उन्हें मिलने वाला है लेकिन पप्पू यादव ने पिछले कुछ सालों में जिस तरह से जन सरोकार की राजनीति की है, उसे उनकी छवि तो बेहतर हुई ही है. बाढ़, कोरोना और लॉकडाउन जैसी विषम परिस्थितियों में जब बिहार के सभी दलों के नेता घर के अंदर छिपे हुए थें, पप्पू यादव सड़क पर उतर कर लोगों की मदद में जुटे हुए थें.
पप्पू यादव की इस छवि को कांग्रेस भुनाना चाहती है. भाजपा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रुड़ी को लपेटे में लेकर जैसे पप्पू यादव जेल गए उससे भी उनकी छवि एक बड़े भाजपा विरोधी नेता के तौर पर बनीं है. कांग्रेस पप्पू यादव को उम्मीदवार बनाकर क्षेत्र में यह मैसेज देना चाहती है कि अगर पप्पू चुनाव जीतते हैं तो एमएलए की तरह नहीं बल्कि क्षेत्र का सेवक बन कर काम करेंगे, जैसा कि उन्होंने पिछले कुछ समय में करके दिखाया है.
लेकिन दोनों ही दलों के बीच कड़वाहट साफ तौर पर देखने को मिल रही है. आरजेडी के नेता अब लगातार कांग्रेस को उसकी औकात का एहसास करा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि आपका वोट बैंक क्या है ? फिलहाल कांग्रेस का कोई भी नेता आरजेडी के खिलाफ तल्ख बयान देने से बच रहा है लेकिन सोशल मीडिया पर आरजेडी और कांग्रेस के समर्थक एक दूसरे से फरियाने में जुट गए हैं.
हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है कि जब आरजेडी ने कांग्रेस को झटका दिया है. इसके पहले जब लालू प्रसाद यादव केंद्र की यूपीए सरकार में रेलमंत्री थें तब उस दौरान भी उन्होंने कांग्रेस को अचानक से बाहर का रास्ता दिखा दिया और लोजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. कांग्रेस ने भी अपने अपमान का लालू प्रसाद यादव से बदला ले लिया.
कांग्रेस ने सभी लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए. आरजेडी 24 से 04 सीट पर आ गई लेकिन इस चुनाव में हुआ यह भी कांग्रेस का कई सीटों पर दावा हो गया. दर्जन भर सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों ने एक लाख वोट प्राप्त कर लिए वहीं आधा दर्जन सीटों पर 2 लाख वोट भी उम्मीदवारों ने हासिल कर लिए. यह साल 2009 का था.
इसके बाद वर्ष 2010 का विधानसभा चुनाव हुआ तब भी आरजेडी लोजपा के साथ मिलकर लड़ी और कांग्रेस अकेले ही मैदान में उतर गई. आरजेडी का पूरे बिहार से सूपड़ा साफ हो गया. महज 24 सीटें ही मिल पाई. खुद राबड़ी देवी दोनों सीटों से बुरी तरह से चुनाव हार गईं. अगर आरजेडी को सिर्फ एक सीट कम मिलती तो उन्हें विधानसभा में विपक्ष की हैसियत से भी वंचित होना पड़ जाता.
पर इन दिनों आरजेडी के हौंसले बुलंद हैं. आरजेडी यह महसूस कर रही है कि अभी बिहार में उनके नेता तेजस्वी यादव की लोकप्रियता शिखर पर है. अभी वह कोई भी जंग अकेले ही जीतने में समर्थ हैं. आरजेडी ने सहयोगी दलों को साफ तौर पर यह संदेश दे दिया है कि महागठबंधन में रहना है तो हमारे रहमोकरम पर रहना होगा अन्यथा बाहर जाने के लिए कोई भी स्वंतत्र है.
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ मदन मोहन झा ने भी एक प्रेस बयान जारी कर कहा है कि राजद ने दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतार कर भारी भूल की है. आरजेडी ने गठबंधन धर्म के विपरीत आचरण किया है. अब गठबंधन बचा कहां है ? ऐसे में अब यह मान लेना चाहिए कि दोनों दलों के बीच गठबंधन टूट चुका है.
वैसे यह भी सच है कि सिवाय लालू प्रसाद यादव के परिवार के आरजेडी का कोई भी नेता कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं चाहता है. कांग्रेस को सवर्ण बिरादरी की पार्टी माना जाता है और आरजेडी की राजनीति सवर्ण राजनीति के खिलाफ रही है. ऐसे में दोनों दलों के कार्यकर्ता संयुक्त रुप से काम नहीं कर पाते हैं.
वहीं इस चुनाव में एक चौथा मोरचा भी तैयार हो रहा है. ये मोरचा दिवंगत नेता रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान का होगा.
वहीं इन दोनों ही सीटों पर चिराग पासवान ने भी अपने उम्मीदवारों को उतारने का फैसला कर लिया है. चिराग के उम्मीदवारों का भी परफॉर्मेंस देखना दिलचस्प होगा. चिराग पासवान की लोकप्रियता घटी है या पार्टी में विघटन के बाद बढ़ी है, इसका फैसला भी इन उपचुनावों के नतीजों से हो जाएगा. बहरहाल त्रिकोणिय संघर्ष के बीच इन दोनों ही सीटों पर उपचुनाव बेहद रोमांचक हो सकते हैं.
उधर लोक जनशक्ति पार्टी में पिछले दिनों जब टूट हुई तो उनके परंपरागत मतदाताओं की बड़े पैमाने पर चिराग पासवान के पक्ष में गोलबंदी देखी गई. पासवान समाज पशुपति कुमार पारस की बजाय चिराग पासवान के पक्ष में जाता हुआ दिखाई दिया. अब ये गोलबंदी वोटों में किस रुप में बदलती है, यह इन दोनों ही उपचुनावों के नतीजों से पता चल जाएगा.
एक तरह से जहां यह उपचुनाव सीएम नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के लिए लिटमस टेस्ट की तरह है तो वहीं चिराग पासवान के लिए भी यह कम प्रतिष्ठा का विषय नहीं होगा. संभव है कि दोनों ही सीटों पर चिराग पासवान के उम्मीदवार चुनाव न जीत पाएं लेकिन उन्हें मिलने वाले वोट ही चिराग पासवान के भविष्य का फैसला करेंगे.
ऐसे में चिराग पासवान के कंधों पर भी अपने नए खेमे की नैया को पार लगाने की पूरी जिम्मेदारी होगी. दोनों ही सीटों पर पासवान समाज के मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं. कुशेश्वर स्थान सीट तो आरक्षित सीट ही है. इस सीट से जेडीयू के दिवंगत विधायक शशिभूषण हजारी स्वयं पासवान समाज से आते थें.
स्वर्गीय शशिभूषण हजारी रामविलास पासवान, पशुपति कुमार पारस और चिराग पासवान के रिश्तेदार भी थें. ऐसे में कुशेश्वरस्थान सीट पर कब्जा करने के लिए चिराग हरसंभव जोर लगाते हुए नजर आ सकते हैं. एक समय में चिराग पासवान के बहनोई धनंजय कुमार पासवान उर्फ मृणाल भी इस सीट से लोजपा के उम्मीदवार थें. उस वक्त राजद और लोजपा का गठबंधन हुआ करता था.
राजनीति में वजूद वोट बैंक से तय होती है. अगर पशुपति कुमार पारस पासवान वोटों की गोलबंदी में असफल होते हैं तो उनकी राजनीतिक गाड़ी पर भी ब्रेक लगना तय माना जा रहा है. अगर आपके पास वोट ही नही ंतो आपको कोई भी जबर्दस्ती ढोने की जहमत नहीं उठाने वाला है.
जेडीयू के लिए इन दोनों ही सीटों ही पर अपना कब्जा बरकरार रखना बेहद जरुरी हो जाता है. अगर इन दोनों सीटों पर जेडीयू अपना कब्जा बरकरार नहीं रख पाई तो बिहार में अगले पांच साल तक सरकार चलाना उनके लिए बेहद मुश्किल होगा. बिहार में जेडीयू पिछले विधानसभा चुनाव में बेहद ही अजीबोगरीब स्थिति में पहुंच गई है.
बिहार में सरकार का नेतृत्व भले ही सीएम नीतीश कुमार कर रहे हो लेकिन गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी है. जिस जेडीयू के पास कभी बिहार विधानसभा की 110 के आसपास सीटें हुआ करती थीं आज उस पार्टी के महज 43 विधायक ही विधानसभा में हैं. दिन प्रतिदिन और चुनाव दर चुनाव जेडीयू की सीटें और वोट प्रतिशत दोनों ही कम होता गया है.
नीतीश कुमार की सरकार जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोरचा सेकुलर और मुकेश सहनी की पार्टी विकासशील इंसान पार्टी के कंधों पर चल रही है. ये दोनों ही सहयोगी गाहे बगाहे सरकार की नीतियों की आलोचना करते रहते हैं और गठबंधन धर्म के विपरीत बयान देते रहते हैं.
जीतन राम मांझी कभी सवर्णों के खिलाफ बयान देकर सहयोगी भाजपा को मुसीबत मेंं डालते रहते हैं तो कभी मुकेश सहनी यूपी के भाजपाई सीएम योगी आदित्यनाथ के खिलाफ मोरचा खोलकर बैठ जाते हैं.
वैसे मांझी और सहनी का एक और रिकॉर्ड यह भी है कि ये दोनों ही ज्यादा दिनों तक किसी के साथ टिक कर नहीं रह पाते हैं. मांझी और संहनी कब क्या कर बैठेंगे, कब किसी खेमे के साथ चले जाएंगे इसकी कोई गारंटी नहीं ले सकता ! यहां तक की मांझी और सहनी को खुद की नहीं पता कि आने वाले दिनों में उनकी राजनीतिक शरणस्थली किस खेमे की ओर होगी.
नीतीश कुमार भी दोनों ही नेताओं की मानसिकता से भली भांति परिचित हैं. नीतीश कुमार यह भी समझते हैं कि इन दोनों का ही राजनीतिक वजूद गठबंधन की राजनीति पर टिका हुआ है. अपने दम पर सीटें निकालने की कूबत न तो मांझी में है और न ही नीतीश कुमार की. हालांकि बदली हुई परिस्थितियों में यह बात नीतीश कुमार पर भी सटीक बैठती है कि अगर भाजपा का वोट बैंक साथ न हो तो नीतीश कुमार का खाता खुलना भी मुश्किल है लेकिन नीतीश कुमार की जो सबसे बड़ी ताकत है, वह यह है कि नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में विकास के प्रतीक माने जाते हैं
यह सब जानते हैं कि नीतीश कुमार के सीएम बनने से पहले बिहार की तस्वीर क्या थी. न सड़के थीं, न बिजली था और न स्कूल कॉलेज हुआ करते थें. जो था भी वह बेहद बदहाल और तंगहाल था. नीतीश कुमार ने बिहार को अंधेरे के गर्त से निकाल कर रोशनी में ले जाने का काम किया.
लेकिन एक दूसरा तथ्य यह भी है कि लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के जिस जंगलराज की कहानी सुनाई जाती है वो 16 साल पहले की बात है. नई पीढ़ी को लालू राबड़ी राज के किस्से सुनाकर वोट लेना आसान नहीं होगा क्योंकि जो बच्चा उस वक्त 02 साल का था, वो आज वोटर है.
आज के बिहार में विकास के तमाम कार्यों के बावजूद बेरोजगारी चरम सीमा पर है. कहीं कोई रोजगार नहीं, कल कारखाने नहीं. नियोजित शिक्षकों के चक्कर में शिक्षा व्यवस्था का कबाड़ा…. यह आज का युवा देख रहा है. किसी भी कार्यालय में बिना घूस के काम नहीं होता. सरकारी योजनाओं में लूट खसोट और चोरी सिस्टम का हिस्सा बन चुका है. यह सब कुछ नीतीश सरकार की विफलताओं का हिस्सा बन गया है.
अब आरजेडी की एकला चलो की रणनीति, कांग्रेस और चिराग के अलग अलग उम्मीदवार और बाहर से एकजुट दिखाई देता एनडीए कितनी कामयाब होती है वह तो तब ही पता चलेगा जब 02 नवंबर को चुनाव के नतीजे आएंगे…. तब तक लेते रहिए बिहार की सियासी फिल्म का मजा….
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